S.No.
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Title
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Chapter
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Verse
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Sanskrit Anuvad
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Hindi Anuvad
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Enlgish Translation
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75
649
401
Vibhuti Yoga
Chapter 10
Verse 10.30
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् । मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥ १०.३० ॥
मैं दैत्यों में प्रह्मद और गणना करने वालों का समय हूँ तथा पशुओं में मृगराज, सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूँ|
Of demons I am Prahlada their prince, and of all things I am the measure of time. Of beasts I am the king of beasts, and beasts and birds I am Vainateya who carries a god.
402
Vibhuti Yoga
Chapter 10
Verse 10.31
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् । झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥ १०.३१ ॥
मैं पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्र धारियों में श्रीराम हूँ तथा मछलियों में मगर हूँ और नदियों में श्रीभागीरथी गंगा जी हूँ |
I am the wind among things of purification, and among warriors I am Rama, the hero supreme. Of fishes in the sea I am Makara, the wonderful and among all rivers the holy Ganges.
403
Vibhuti Yoga
Chapter 10
Verse 10.32
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन । अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥ १०.३२ ॥
हे अर्जुन !सृष्टियों का आदि और अन्त तथा मध्य भी मै ही हूँ । मैं विद्याओं में अध्यात्म विद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या और परस्पर विवाद करने वालों का तत्व-निर्णय के लिये किया जाने वाला वाद हूँ |
I am the beginning and the middle and the end of all that is. Of all knowledge I am the knowledge of the Soul. Of the many paths of reason I am the one that leads to Truth.
404
Vibhuti Yoga
Chapter 10
Verse 10.33
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च । अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥ १०.३३ ॥
मैं अक्षरों में अकार हूँ और समासों में द्वन्द्व नामक समास हूँ, अक्षय काल अर्थात् काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुख वाला, विराट् स्वरूप सब का धारण-पोषण करने वाला भी मै ही हूँ| 
Of sounds I am the first sound ‘A’. Of compounds I am coordination. I am time, never ending time. I am the Creator who sees all.
405
Vibhuti Yoga
Chapter 10
Verse 10.34
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् । कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥ १०...
मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और उत्पन्न होने वालों का उत्पति हेतु हूँ तथा स्त्रियों में कीर्ति,श्री,वाक् स्मृति, मेधा,धृति और क्षमा हूँ |
I am death that carries off all things, and I am the source of things to come. Of feminine nouns I am Fame and Prosperity; speech, Memory and Intelligence, Constancy and Forgiveness.
406
Vibhuti Yoga
Chapter 10
Verse 10.35
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् । मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥ १०.३५ ॥
तथा गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं बृहत्साम और छन्दों में गायत्री छन्द हूँ तथा महीनों में मार्ग शीर्ष और ऋतुओं में बसन्त मैं हूँ|
I am the Brihat song of all songs in the Vedas. I am the Gayatri of all measures in Verse. Of months I am the first of the year, and of all the seasons the season of blossoms.
407
Vibhuti Yoga
Chapter 10
Verse 10.36
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् । जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥ १०.३६ ॥
मैं छ्ल करने वालों में जूआ और प्रभावशाली पुरुषो का प्रभाव हूँ । मैं जीतने वालों का विजय हूँ, निश्चय करने वालों का निश्चय और सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूँ |
I am the cleverness in the gambler’s dice. I am the beauty of all things beautiful. I am victory and the struggle for victory. I am the goodness of those who are good.
408
Vibhuti Yoga
Chapter 10
Verse 10.37
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः । मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥ १०.३७ ॥
वृष्णिवंशियों में वासुदेव अर्थात् मैं स्वयं तेरा सखा पाण्डवों में धनंजय अर्थात् तू, मुनियों में वेद-व्यास और कवियों में शुक्राचार्य  कवि भी मैं ही हूँ |
Of all the children of Vrishni I am Krishna; and of the sons of Pandu I am Arjuna, Among seers in silence I am Vyasa; and among poets the poet Usana.
409
Vibhuti Yoga
Chapter 10
Verse 10.38
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् । मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥ १०.३८ ॥
मैं दमन करने वालों का दण्ड अर्थात् दमन करने की शक्त्ति हूँ, जीतने की इच्छा वालों की नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हूँ और ज्ञानवानों का तत्व ज्ञान मै ही हूँ |
I am the sceptre of rulers of men; and I am the wise policy of those who seeks victory. I am the silence of hidden mysteries, and I am the knowledge of those who know.
410
Vibhuti Yoga
Chapter 10
Verse 10.39
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन । न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥ १०.३९ ॥
और हे अर्जुन ! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह भी मै ही हूँ, क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो|
Arjuna, know that I am the seed of all things that are, and that no being that moves or moves not can ever be without Me.
411
Vibhuti Yoga
Chapter 10
Verse 10.40
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप । एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥ १०.४० ॥
हे परंतप ! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का विस्तार तो तेरे लिये एक देश से अर्थात् संक्षेप से कहा है |
There is no end of my divine qualities, Arjuna. What I have spoken here to thee shows only a small part of my infinity.
412
Vibhuti Yoga
Chapter 10
Verse 10.41
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा । तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम् ॥ १०.४१ ॥
जो-जो भी विभूति युक्त्त अर्थात् ऐश्वर्य युक्त्त, कान्ति युक्त्त और शक्त्ति युक्त्त वस्तु है, उस-उसको तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्त्ति जान|
Whatever is beautiful and good, whatever has glory and power is only a portion of My own radiance.
413
Vibhuti Yoga
Chapter 10
Verse 10.42
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन । विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥ १०.४२ ॥
अथवा हे अर्जुन ! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है । मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपनी योग शक्त्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ |
But of what help is it to you to know this diversity? Know that with one single fraction of My Being I pervade and support the Universe and know that I am.
414
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.1
अर्जुन उवाच । मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥ ११.१ ...
अर्जुन बोले—मुझ पर अनुग्रह करने के लिये आपने जो परम गोपनीय अध्यात्म विषयक वचन अर्थात् उपदेश कहा, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है |
Arjuna thankfully replied: O Lord it is because of Your mercy alone that the mystery of the self which has confused me until now, has become clear in the mind.
415
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.2
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया । त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥ ११.२ ॥
प्राणियों की उत्पत्ति और विनाश, वास्तव में, मेरे द्वारा आप से विस्तार से सुना गया है, हे कमल की आंखों वाले कृष्ण, और आपकी असीम महानता भी।
The origin and destruction of beings verily, have been heard by me in detail from You, O Lotus-eyed Krishna, and also Your inexhaustible greatness.
416
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.3
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर । द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥ ११.३ ॥
(अब) हे परम प्रभु! जैसा कि आपने इस प्रकार अपने आप को वर्णित किया है, मैं (वास्तव में) आपके रूप दिव्य, हे पुरुषोत्तम को देखना चाहता हूं।
(Now) O Supreme Lord! As you have thus described Yourself, I wish to see (actually) Your Form Divine, O PURUSHOTTAMA.
417
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.4
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो । योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥ ११.४ ॥
हे प्रभो ! यदि मेरे द्वारा आपका वह रूप देखा जाना शक्य है—ऐसा आप मानते है, तो हे योगेश्वर ! उस अविनाशी स्वरूप का मुझे दर्शन कराइये |
O Great Lord of Yoga, if you think of me as being worthy and able to see your Supreme form, then display Your true, eternal self to me dear Lord.
418
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.5
श्रीभगवानुवाच । पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥ ११.५ ॥
श्रीभगवान् बोले —–हे पार्थ ! अब तू मेरे सैकड़ों-हजारों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा नाना आकृति वाले अलौकिक रूपों को देख|
The Blessed lord said: Behold O Dear Arjuna, as I reveal to you hundreds and even thousands of My various, divine forms of several colours and shapes.
419
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.6
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा । बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥ ११.६ ॥
हे भरतवंशी अर्जुन ! तू मुझ में आदित्यों को अर्थात् अदितिं के द्बादश पुत्रों को, आठ वसुओं को, एकादश रुद्रों को, दोनों अश्विनी कुमारों को और उन्चास मरुदगणों को देख तथा और भी बहुत से पहले न देखे हुए आश्चर्य मय रूपों को देख|
Watch My Dear Devotee, as I disclose to you my various forms. The gods of sun, fire and light; the gods of storm, and lightning and the two beautiful charioteers of Heaven. Behold O Relative of Bharata, vision and sights never before seen by the naked human eyes!
420
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.7
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् । मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि ॥ ११.७ ॥
हे अर्जुन ! अब इस मेरे शरीर में एक जगह स्थित चराचर सहित सम्पूर्ण जगत् को देख तथा और भी जो कुछ देखना चाहते हो सो देख|
Arjuna, see before you now, the whole universe as it both moving and at rest, see whatever you desire. See it all in me because I am in everything and everything is in Me.
421
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.8
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा । दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥ ११.८ ॥
परन्तु मुझको तू इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में निःसंदेह समर्थ नहीं है ; इसी से मैं तुझे दिव्य अर्थात् अलौकिक चक्षु देता हूँ ; इससे तू मेरी ईश्वरीय योग शक्त्ति को देख |
However, Dear Arjuna, understand that one can only see My divine form through divine eye-sight. You can never see Me through your mortal eyes. Therefore I will give you divine eye-sight to behold my divine Power and glory.
422
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.9
संजय उवाच । एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥ ११.९ ॥
संजय बोले — हे राजन् ! महा योगेश्वर और सब पापों के नाश करने वाले भगवान् ने इस प्रकार कहकर उसके पश्चात् अर्जुन को परम ऐश्वर्य युक्त्त दिव्य स्वरूप दिखलाया|
Sanjaya (narrator of the Geeta), further explained to his King: Thus, when the great Lord Hari, God of Yoga  had spoken, He revealed to Partha (Arjuna) His Divine Form.
423
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.10
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् । अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥ ११.१० ॥
अनेक मुख और नेत्रों से युक्त्त, अनेक अद्भ्रुत दर्शनों वाले, बहुत से दिव्य भूषणों से युक्त्त और बहुत से दिव्य शस्त्रों को हाथों में उठाये हुए, दिव्य माला और वस्त्रों को धारण किये हुए और दिव्य गन्ध का सारे शरीर में लेप किये हुए, सब प्रकार के आश्चर्यो से युक्त्त, सीमा रहित और सब ऒर मुख किये हुए विराट् स्वरूप परम देव परमेश्वर को अर्जुन ने देखा |
Sanjaya Continued: Arjuna had now begun to see the most extra-ordinary and miraculous visions and marvels; several faces; several divine ornaments and a countless amount of heavenly weapons. Sanjaya described Arjuna saw before him, a wide range of heavenly garlands, and garments, with divine perfumes and scents. This heavenly and infinite image, made up of all fantastic wonders,was facing all directions and all the endless marvels seemed to be contained in him.
424
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.11
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् । सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥ ११.११ ॥
1. दिव्य माला (हार) और परिधान पहने हुए, दिव्य unguents के साथ अभिषिक्त, सभी अद्भुत, चमकदार, अंतहीन, सभी पक्षों का सामना करना पड़ रहा है.
1. Wearing divine garlands (necklaces) and apparel, anointed with divine unguents, the All-wonderful, Resplendent, Endless, facing all sides.
425
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.12
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता । यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥ ११.१२ ॥
आकाश में हजार सूर्यो के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश हो, वह भी उस विश्व रूप परमात्मा के प्रकाश के सद्र्श कदाचित् ही हो |
The divine radiance and beautiful light that was being emmitted by the glorious vision was so great that it could only be matched by the light of one thousand suns arising in the sky at once.
426
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.13
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा । अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥ ११.१३ ॥
पाण्डु पुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से विभक्त्त अर्थात् पृथक्-पृथक् सम्पूर्ण जगत् को देवों के देव श्रीकृष्ण भगवान् के उस शरीर में एक जगह स्थित देखा|
Here, the Pandava (Arjuna) saw the whole universe in its several dimensions and varieties all gathered together in the Supreme Lord of Lords.
427
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.14
ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः । प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥ ११.१४ ॥
फिर, धनंजय, आश्चर्य से भरा हुआ, अपने बालों के साथ अंत में खड़े थे, भगवान को अपना सिर झुकाया और जुड़ी हुई हथेलियों के साथ बात की।
Then, Dhananjaya, filled with wonder, with his hair standing on end, bowed down his head to the God and spoke with joined palms.
428
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.15
अर्जुन उवाच । पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसंघान् । ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ- मृ...
अर्जुन बोले—–हे देव ! मै आपके शरीर में सम्पूर्ण देवों कों तथा अनेक भूतों के समुदायों कों, कमल के आसन पर विराजित ब्रह्मा को, महादेव को और सम्पूर्ण ऋषियों को तथा दिव्य सर्पो को देखता हूँ
O Lord, I have seen within Thy heavenly body, all of the gods and the infinite variety of being that have been created by You. I see before Me the great Lord Brahma who is seated on the lotus throne, all the seers of light (sages), and the Divine Serpents as well.
429
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.16
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् । नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्...
हे सम्पूर्ण विश्व के स्वामिन् ! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख, और नेत्रों से युक्त्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देखता हूँ । हे विश्व रूप ! मैं आपके न अन्त को देखता हूँ न मध्य को, और न आदि को ही |
Arjuna explained to the Lord: O Krishna, I behold your image as being never-ending, with countless arms, faces, bellies, eyes, and mouth. I sense the divinity and power coming from all parts of Your Superior Being. O Lord of Lords, I am unable to see Thy beginning, middle or end for You are of infinite form!
430
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.17
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् । पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता- द्द...
आप को मैं मुकुट युक्त्त, गदा युक्त्त और चक्र युक्त्त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज के पुञ्ज, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सद्र्श ज्योति युक्त्त, कठिनता से देखे जाने योग्य और सब ओर से अप्रमेय स्वरूप देखता हूँ|
I can clearly see the crown, sceptre and discus glowing upon Your lotus body like a mass of intense light. Your dazzling image is difficult for me to behold and believe, yet I still see You in Your full brilliance as the eternal, flaming fire, the blinding sun and truly as one of a kind.
431
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.18
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पु...
आप ही जानने योग्य परम अक्षर अर्थात् परब्रह्म परमात्मा हैं, आप ही इस जगत् के परम आश्रय हैं, आप ही अनादि धर्म के रक्षक है और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं । ऐसा मेरा मत हैं|
You are immortal, imperishable and never ending. You are the height of knowledge and the Supreme to be realized by all. You are the support of this large universe. I think you to be the guardian and ruler of the eternal law of purity and virtue. You are the ever-lasting Spirit who is, and always has been, at the very beginning of all things in the universe.
432
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.19
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य- मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् । पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा वि...
आपको आदि, अन्त, और मध्य से रहित, अनन्त सामर्थ्य से युक्त्त, अनन्त भुजा वाले, चन्द्र-सूर्य रूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुख वाले और अपने तेज से इस जगत् को संतप्त करते हुए देखता हूँ |
O Great Lord, I see Thee as having no beginning, middle or end; being of endless and infinite power and glory which is all contained in Your unlimited number of divine arms. Thy face resembles an eternal fire that gives light and life to all things in this enormous universe. In Thine eyes I see the sun and the moon, dear Lord.
433
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.20
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः । दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्...
पृथ्वी और आकाश और सभी तिमाहियों के बीच का यह स्थान केवल तेरे द्वारा ही भरा हुआ है; यह देखने के बाद, अपने अद्भुत और भयानक रूप, तीन दुनिया भय से कांप रहे हैं, हे महान आत्मा होने के नाते
This space between earth and the heavens and all the quarters is filled by You alone; having seen this, Your wonderful and terrible form, the three worlds are trembling with fear, O great-souled Being
434
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.21
अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति । स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंघाः ...
वे ही देवताओं के समूह आप में प्रवेश करते है और कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़े आपके नाम और गुणों का उच्चारण करते है तथा महर्षि और सिद्धो के समुदाय ‘कल्याण हो’ ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं |
The many hosts of gods join and come into You my Lord. Out of respect, fear and love for You, they praise and adore You. The great sages and seers all sing praises of Thy glory as well, Almighty Lord.
435
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.22
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च । गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघा वीक्षन्ते...
जो ग्यारह रूद्र और बारह आदित्य तथा आठ वसु, साध्य गण, विश्वेदेव अश्विनी कुमार तथा मरुदगण और पितरों का समुदाय तथा गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और सिद्धों के समुदाय है —-वे सब ही विस्मित होकर आपको देखते है |
The Rudras of destruction, the Adityas, the Vasus, the Sadhyas, and the Visvedevas; the two Asvins (Charioteers) of heaven; the Maruts (Lord of winds and storms); the Spirits of Ancestors; the divine singing choirs of the Gandharvas; the Yakshas (keepers of wealth); the demons of hell; and the Siddhas (those who gained the prestigious goal of perfection on earth), all of these Supreme souls and saints gaze upon Thee with wonder and respect.
436
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.23
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम् । बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्...
हे महाबाहो ! आपके बहुत मुख और नेत्रों वाले, बहुत हाथ, जड़ा और पैरो वाले, बहुत उदरों वाले और बहुत सी दाढ़ों के कारण अत्यन्त विकराल महान् रुपको देखकर सब लोग व्याकुल हो रहे हैं तथा मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ |
However Dear Lord, the worlds cannot help but tremble at the fearful sight of Your mighty and terrifying forms. The forms consisting of many eyes, mouth, bellies, feet and terrible fangs that are too frightening for the average mortal to gaze upon. However this is but one single aspect of your omniscience (being everything and every-where) in the universe.
437
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.24
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् । दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृ...
क्योंकि हे विष्णो ! आकाश को स्पर्श करने वाले, देदीप्यमान, अनेक वर्णों से युक्त्त तथा फैलाये हुए मुख और प्रकाश मान विशाल नेत्रों से युक्त्त आपको देखकर भयभीत अन्त:करण वाला मैं धीरज ओर शान्ति नहीं पाता हूँ|
O Lord, when I see Your vast and enormous form which reaches the sky, surrounded by a burning and magnificient glow of several beautiful colours, with mouth opened wide and large, my heart and inmost soul tremble in amazement and terror. My power and peace of mind have also vanished, Dear Vishnu.
438
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.25
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि । दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन...
दाढ़ों के कारण विकराल और प्रलय काल की अग्नि के समान आपके मुखों कों देख कर मैं दिशाओं को नहीं जानता हूँ और सुख भी नहीं पाता हूँ । इसलिये हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न हों |
O Lord, seeing Your enormous facial features and frightening teeth like the fire that burns till the end of time and all existence, I find myself truly losing all sense of direction and peace with myself! O Lord have mercy on me! Give me shelter, O Giver of refuge and Supreme Being of this vast universe.
439
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.26
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः । भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदी...
वे सभी धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आप में प्रवेश कर रहे हैं और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा वह कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सब-के-सब आपके दाढ़ों के कारण विकराल भयानक मुखों से बड़े वेग से दोड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं और कई एक चूर्ण और सिरों सहित आपके दाँतों के बीच लगे हुए दीख रहे हैं|
Arjuna began to explain: All the sons of Dhratarashtra together with the other hosts of kings and princes along with Bhisma, Drona, and Karna and other great warriors on our side….Arjuna Continued:…are all being forced to enter the various mouths of your most enormous and terrifying forms, inspiring terror in everyone with those fearful fangs.
440
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.27
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि । केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चू...
वे सभी धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आप में प्रवेश कर रहे हैं और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा वह कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सब-के-सब आपके दाढ़ों के कारण विकराल भयानक मुखों से बड़े वेग से दोड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं और कई एक चूर्ण और सिरों सहित आपके दाँतों के बीच लगे हुए दीख रहे हैं|
Arjuna began to explain: All the sons of Dhratarashtra together with the other hosts of kings and princes along with Bhisma, Drona, and Karna and other great warriors on our side….Arjuna Continued:…are all being forced to enter the various mouths of your most enormous and terrifying forms, inspiring terror in everyone with those fearful fangs.
441
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.28
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति । तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज...
जैसे नदियों के बहुत से जल के प्रवाह स्वाभाविक ही समुद्र के ही सम्मुख दौड़ते हैं अर्थात् समुद्र में प्रवेश करते हैं, वैसे ही वे नरलोक के वीर भी आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं|
Your flaming mouths are consuming all of these heroes of our modern world like roaring torrents of rivers rushing forward into the ocean.
442
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.29
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः । तथैव नाशाय विशन्ति लोका- स्तवापि वक्त्राण...
जैसे पतंग मोह वश नष्ट होने के लिये प्रज्वलित अग्नि में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के लिये आपके मुखों में अतिवेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं| 
All of these men are rushing swiftly into the blazing fire coming from Your several mouths, towards their death and destruction just as moths swiftly rush into a burning flame and die.
443
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.30
लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ता- ल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः । तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्र...
आप उन सम्पूर्ण लोकों को प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रास करते हुए सब ओर से बार- बार चाट रहे है, हे विष्णो ! आपका उग्र प्रकाश सम्पूर्ण जगत् को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपा रहा हैं |
The large fires that can be seen from within the mouths of Your divine forms, devour all the worlds of the universe. Your glorious, fiery rays fill the whole universe. However, Dear Vishnu, this very same universe is the victim of Your terrible radiant and scorching rays of light!
444
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.31
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद । विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि...
मुझे बतलाइये कि आप उग्र रूप वाले कौन हैं ? हे देवों में श्रेष्ट ! आपको नमस्कार हो । आप प्रसन्न होईये । आदि पुरुष आपको मैं विशेष रूप से जानना चाहता हूँ ; क्योंकि मैं आपकी प्रवृति को नहीं जानता|
Dear Lord Supreme, I do not understand Your mysterious ways. Reveal Yourself to me! Who are You in this terrible form? Be gracious to me Dear Lord, and explain to me the secret of Your reality, for I am confused.
445
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.32
श्रीभगवानुवाच । कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः । ऋतेऽपि त्वां न भविष्...
श्रीभगवान् बोले— मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूँ । इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिये प्रवृत हुआ हूँ । इसलिये  जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात् तेरे युद्ध न करने पर भी इन सबका नाश हो जायगा |
The Blessed Lord spoke: Dear Arjuna, understand that I am the all-powerful entity known as Time, which destroys all beings in this universe. Even without the help of your actions, all of these warriors standing before Me in the opposing armies shall cease to live!
446
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.33
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहताः पूर्वमेव ...
अतएव तू उठ ! यश प्राप्त कर और शत्रुओं को जीत कर धन-धान्य सम्पन्न राज्य को भोग । ये सब शूर वीर पहले ही से मेरे द्वारा मारे हुए हैं  । हे सव्यसाचिन् ! तू तो केवल निमित्त मात्र बन जा|
Therefore, arise O son of Kunti (Arjuna), win thy glory, conquer your enemies, enjoy a prosperous kingdom! Through the result of their own Karma, I have doomed these people to die and you, My Dear disciple, are simply a means of Mine by which this task shall be accomplished.
447
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.34
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् । मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व...
द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह तथा जयद्रथ और कर्ण तथा और भी बहुत से मेरे द्वारा मारे हुए शूर वीर, योद्धाओं को तू मार । भय मत कर । नि:संदेह तू युद्ध में बैरियों को जीतेगा । इसलिये युद्ध कर|
Do not fear O Arjuna! Fight and slay all these great warriors such as Drona, Bhisma, Karna and Jayad-Ratha, who are already doomed for death! Be bold O Arjuna! perform your duty; conquer your enemies in battle and leave the rest up to Me the Supreme Lord.
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Chapter 11
Verse 11.35
संजय उवाच । एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी । नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद...
संजय बोले —– केशव भगवान् के इस वचन को सुन कर मुकुट धारी अर्जुन हाथ जोड़ कर काँपता हुआ नमस्कार करके, फिर भी अत्यन्त भयभीत होकर प्रणाम करके भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति गदगद वाणी से बोले|
Sanjaya narrated to his King: When Arjuna had heard the words of Krishna, he folded his hands and bowed his trembling body down before the Great Lord in adoration and in a faultering voice he spoken:
449
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.36
अर्जुन उवाच । स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च । रक्षांसि भीतानि दिशो द्रव...
अर्जुन बोले—-हे अन्तर्यामिन् ! यह योग्य ही है की आपके नाम, गुण और प्रभाव के कीर्तन से जगत् अति हर्षित हो रहा है और अनुराग को भी प्राप्त हो रहा है तथा भयभीत राक्षस लोग दिशाओं में भाग रहे है और सब सिद्ध गुणों के समुदाय नमस्कार कर रहे हैं|  
Dear Krishna, it is a true fact that countless people sing thy praise and take delight in glorifying You. The Rakshasas (evil-doers) flee in terror in all directions from Your Divine Might! All the great Saint and Seers bow down in love and adoration before You.
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Chapter 11
Verse 11.37
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे । अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत...
हे महात्मन् ! ब्रह्मा के भी आदिकर्ता और सबसे बड़े आप के लिये वे कैसे नमस्कार न करें ; क्योकि हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! जो सत्, असत् और उनसे परे अक्षर अर्थात् सच्चिदानन्धन ब्रह्मा है वह आप ही हैं|
To think that any wiseman would do anything else but bow down before Your infinite greatness. is unwise, O Blessed Lord, Lord of Lords, Spirit Supreme! You are the Lord of Brahma (the Lord of Creation). You, my Dear Lord, are the never-ending, eternal refuge of the world. You are all that exists, that is non-existent, and that is even beyond existence.
451
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.38
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण- स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं ...
आप आदि देव और सनातन पुरुष हैं, आप इस जगत् के परम आश्रय और जानने वाले तथा जानने योग्य और परम धाम हैं । हे अनन्त रूप ! आप से यह सब जगत् व्याप्त अर्थात् परिपूर्ण हैं|
You are the first and foremost of Gods; You are the beginning of all existence and are the support of this vast universe. You know all and You are all that is to be known. You are the sole Supreme Goal to be realized by all. You are the Eternal and Omnipresent. From You alone all things have evolved O Krishna!
452
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.39
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च । नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भू...
आप वायु, यमराज ; अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजा के स्वामी ब्रह्मा और ब्रह्मा के भी पिता हैं । आपके लिये हजारों बार नमस्कार ! नमस्कार हो !! आपके लिये फिर भी बार-बार नमस्कार ! नमस्कार !!|
You are the wind (Vayu); Yama (the destroyer); You are the Sea-God (Varuna); the moon (Lord Sasanka); the Grand King of all (Prajapati). Hail to Thee O Lord! A thousand adorations to thee! Again and again to thee everyone hails!
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Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.40
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व । अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि त...
हे अनन्त सामर्थ्य वाले ! आपके लिये आगे से और पीछे से भी नमस्कार ! हे सर्वात्मन् ! आपके लिये सब ओर से ही नमस्कार हो । क्योंकि अनन्त पराक्रमशाली आप समस्त संसार को व्याप्त किये हुए है, इससे आप ही सर्वरूप है|
May good prayers, adorations, and salutations come to Your greatness from all directions O Mighty Lord Krishna! O Lord of all aspects of this universe, limitless in power and infinite might. You, the most Superior of all, have the ominous power to penetrate  all beings in this universe. You are All, Dear Lord.
454
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Chapter 11
Verse 11.41
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति । अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन ...
आपके इस प्रभाव को न जानते हुए, आप मेरे सखा हैं ऐसा मानकर प्रेम से अथवा प्रमाद से भी मैने ‘हे कृष्ण !,’ हे यादव !,’ हे सखे !’ इस प्रकार जो कुछ बिना सोचे समझे ह्ठात् कहा हैं और हे अच्युत ! जो मेरे द्वारा विनोद के लिये विहार, शय्या, आसन, और भोजनादि में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमानित किये गये हैं —– वह सब अपराध अप्रमेय स्वरूप अर्थात् अचिन्तय प्रभाव वाले आप से मैं क्षमा करवाता हूँ |
O Madhava (Krishna). my dear comrade and Lord, for whatever I have unthinkingly said to You, ignorant of the fact that You are very much more a Greater Being than simply MY companion in battle; for my utter ignorance or maybe out of fondness… …for whatsoever I have incorrectly presumed about You; for my irreverence and disrespect when alone with You or amongst companions; for making fun or teasing You at play or at rest: for all these things, dear Lord, please find it in Your divine heart to forgive Me for this ignorance.
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Chapter 11
Verse 11.42
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु । एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेय...
जिस भी तरह से मैंने मज़े के लिए आपका अपमान किया हो सकता है, जबकि खेल में, प्रस्तुत करने या बैठने, या भोजन पर, जब अकेले (आपके साथ), हे अच्युता, या कंपनी में - कि, हे अथाह एक, मैं आपको क्षमा करने के लिए विनती करता हूं।
In whatever way I may have insulted You for the sake of fun, while at play, reposing or sitting, or at meals, when alone (with You), O Achyuta, or in company — that, O Immeasurable One, I implore You to forgive.
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Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.43
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् । न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रय...
आप इस चराचर जगत् के पिता और सबसे बड़े गुरु एवं अति पूजनीय हैं, हे अनुपम प्रभाव वाले ! तीनों लोकों में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है फिर अधिक तो कैसे हो सकता हैं ।
Arjuna continued to praise Krishna: You are the divine father of All. The Supreme Master. You are all that is moving and unmoving. You are the single object of worship in all the universe and the Supreme Teacher. Who is like You? Whose power exceeds and goes beyond Your infinite Might?
457
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.44
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् । पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रिया...
अतएव हे प्रभो ! मैं शरीर को भली भांति चरणों में निवेदित कर प्रणाम करके स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ, हे देव ! पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रियतमा पत्त्नी के अपराध सहन करते हैं —- वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने योग्य हैं |
I kneel before Your greatness O Lord, simply in love and adoration for You! I beg for beg your good grace and mercy on me, O Vishnu. I plead with Thee Shri Krishna, as a friend to his friend or as a lover would to his beloved!
458
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.45
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे । तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश ...
मैं पहले न देखे हुए आपके इस आश्चर्य मय रूप को देख कर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा हैं ; इसलिये आप उस अपने चतुर्भुज विष्णु रूप को ही मुझे दिखलाइये ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! प्रसन्न होइये ।
Arjuna expressed gratefully: The vision that I have seen because of your divine Grace, no mortal man has seen before, At the same time, I rejoice with extreme joy and my heart trembles with fear of You, O Lord! Have mercy on Me, O Lord of all the Lords, Be gracious O Refuge of this universe! Please show me your human form once more.
459
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.46
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त- मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव । तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश...
मैं तुम्हें पहले की तरह देखना चाहता हूँ, मुकुट पहनाया, एक गदा असर, हाथ में एक डिस्कस के साथ, केवल अपने पूर्व रूप में, चार हथियारों, हे हजार सशस्त्र, हे सार्वभौमिक रूप से होने.
I desire to see You as before, crowned, bearing a mace, with a discus in hand, in Your Former Form only, having four arms, O Thousand-armed, O Universal Form.
460
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.47
श्रीभगवानुवाच । मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् । तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं ...
श्रीभगवान् बोले ——-हे अर्जुन ! अनुग्रह पूर्वक मैंने अपनी योग शक्त्ति के प्रभाव से यह मेरा परम तेजोमय, सबका आदि और सीमा रहित विराट् रूप तुझको दिखलाया है, जिसे तेरे अतिरिक्त दूसरे किसी ने पहले नहीं देखा था|
The Lotus-colured Lord Krishna said: Through My divine Power and Grace, Dearest Arjuna, I have shown you the form Supreme made of a divine glow, which is the infinite, endless and true form of mine from beginning of all existence. I have revealed to you O devotee of Mine, the luminous vision of Me which no mortal has observed before.
461
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.48
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै- र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः । एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन...
हे अर्जुन ! मनुष्य लोक में इस प्रकार विश्व रूप वाला मैं न वेद और यज्ञों के अध्ययन से, न दान से, न क्रियाओं से और न उग्र तपों से ही तेरे अतिरिक्त दूसरे के द्वारा देखा जा सकता हूँ ।
The Blessed Lord spoke solemnly: O Arjuna, you the greatest of Kurus alone has seen My true and Supreme form. Consider yourself fortunate for neither through the Vedas, nor through sacrifices, nor studies, nor through ceremonial rites, rituals or fearful actions of worship can a mere mortal man hope to see My Supreme form.
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Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.49
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् । व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे ...
डरो मत, और न ही इस तरह के रूप में मेरे एक भयानक रूप को देखकर चकित हो जाओ; अपने डर के साथ और खुश दिल के साथ, अब फिर से मेरे इस रूप को देखो।
Be not afraid, nor bewildered on seeing such a terrible-Form of Mine as this; with your fear dispelled and with gladdened heart, now behold again this Form of Mine.
463
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.50
संजय उवाच । इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः । आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्...
संजय बोले ——-वासुदेव भगवान् ने अर्जुन के प्रति इस प्रकार कहकर फिर वैसे ही अपने चतुर्भुज रूप को दिखलाया और फिर महात्मा श्रीकृष्ण ने सौम्य मूर्ति होकर इस भयभीत अर्जुन को धीरज दिया|
Sanjaya further recounted: Having said this to Arjuna, the great Lord Vasudeva (Krishna) revealed to Arjuna, His human form once more. Thus the Lord of all beings gave peace to Arjuna’s fear and comforted a terrified Arjuna.
464
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.51
अर्जुन उवाच । दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥ १...
अर्जुन बोले —–हे जनार्दन ! आपके इस अति शान्त मनुष्य रूप को देखकर अब मैं स्थिर चित्त हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ ।
Arjuna responded in relief: Now that I see your gentle human form Dear Krishna, I have returned back to my normal self with a peaceful mind and heart.
465
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.52
श्रीभगवानुवाच । सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ॥ ...
श्रीभगवान् बोले ——मेरा जो चतुर्भुज रूप तुमने देखा हैं, यह सुदुर्दर्श है अर्थात् इसके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं । देवता भी सदा इस रूप के दर्शन की आकांक्षा करते रहते हैं |
The Blessed lord said: Dear Arjuna, the Divine form of Myself which you have seen with so much difficulty is an experience which even the other gods and godesses in heaven long to see.
466
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.53
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया । शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥ ११.५३ ॥
जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है —–इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ ।
Not even with such religious acts as ritual offerings, gifts to the unfortunate and poor, and by leading a life only of worship and devotion to Me, can one be so fortunate as to witness what you have.
467
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.54
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥ ११.५४ ॥
परन्तु हे परंतप अर्जुन ! अनन्य भक्क्ति के द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं प्रत्यक्ष देखने के लिये, तत्व से जानने के लिये तथा प्रवेश करने के लिये अर्थात् एकीभाव से प्राप्त होने के लिये भी शक्य हूँ |
It is only by true love and selfless devotion that one can truly come to know Me, see Me in My true form, and be an eternal part of Me.
468
Viswarupa-Darsana Yoga
Chapter 11
Verse 11.55
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः । निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥ ११.५५ ॥
हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला हैं, मेरे परायण है, मेरा भक्त्त हैं, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूत प्राणियों में वैर भाव से रहित है वह अनन्य भक्ति युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता हैं ।
He who truly loves Me; devotes his whole life to performing actions to please only Myself; who recognizes that I am the Supreme and final goal of life; who is free from all attachment and has love for all that I have created; that man comes to truly know who I am.
469
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.1
अर्जुन उवाच । एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥...
अर्जुन बोले- जो अनन्यप्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकारसे निरन्तर आपके भजन-ध्यानमें लगे रहकर आप सगुणरूप परमेश्वरको और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्मको ही अतिश्रेष्ठ भावसे भजते हैं – उन दोनों प्रकारके – उपासकोंमें अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं ?
Arjuna asked: Those devotees who worship you as the one without attributes (formless) and those who worship you as the one with attributes (with form); which of these are better versed in Yoga?
470
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.2
श्रीभगवानुवाच । मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥ ...
श्रीभगवान् बोले—मुझमें मनको एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यानमें लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धासे युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वरको भजते हैं, वे मुझको योगियोंमें अति उत्तम योगी मान्य हैं|
The Blessed Lord said: Those who have fixed their minds on Me and worship me with total dedication and faith, them I consider perfect in Yoga.
471
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.3
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते । सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥ १२.३ ॥
परन्तु जो पुरुष इन्द्रियोंके समुदायको भली प्रकार वशमें करके मन-बुद्धिसे परे, सर्वव्यापी, अकथनीयस्वरूप और सदा एकरस रहनेवाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको निरन्तर एकीभावसे ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं|
But those who worship the formless, the Indefinable, the Imperishable, the Unmanifest, the Omnipresent, the Unthinkable, the Unchangeable, the Immovable, the External- Having controlled all of the senses, always evenminded, thinking of the welfare of all beings, they also come to Me.
472
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.4
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः । ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥ १२.४ ॥
परन्तु जो पुरुष इन्द्रियोंके समुदायको भली प्रकार वशमें करके मन-बुद्धिसे परे, सर्वव्यापी, अकथनीयस्वरूप और सदा एकरस रहनेवाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको निरन्तर एकीभावसे ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं|
But those who worship the formless, the Indefinable, the Imperishable, the Unmanifest, the Omnipresent, the Unthinkable, the Unchangeable, the Immovable, the External- Having controlled all of the senses, always evenminded, thinking of the welfare of all beings, they also come to Me.
473
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.5
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् । अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥ १२.५ ॥
न सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्ममें आसक्त चित्तवाले पुरुषोंके साधनमें परिश्रम विशेष है; क्योंकि देहाभिमानियोंके द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है|
However, the worship of God without form is very difficult for the embodied because it is very hard to set the mind on the unmanifest, i.e. the one not capable of being recognized with the aid of the senses.
474
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.6
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः । अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ १२.६ ॥
परन्तु जो मेरे परायण रहनेवाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मोंको मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वरको ही अनन्य भक्तियोगसे निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं|
But those who worship Me, dedicating all actions to Me, regarding Me as the Supreme Goal, meditating on Me with single-mindness.
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Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.7
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् । भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥ १२.७ ॥
हे अर्जुन ! उन मुझमें चित्त लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाला होता हूँ|
These worshippers’ thoughts are set on Me; hence O Arjuna, I become their saviour from the wheel of birth and death.
476
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.8
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय । निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ १२.८ ॥
मुझमें मनको लगा और मुझमें ही बुद्धिको लगा; इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है|
Therefore, fix your mind on Me alone, let your thoughts reside in Me. You will hereafter live in Me alone. Do not have any doubt about it.
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Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.9
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् । अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय ॥ १२.९ ॥
यदि तू मनको मुझमें अचल स्थापन करनेके लिये समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्यासरूप योगके द्वारा मुझको प्राप्त होनेके लिये इच्छा कर|
If you are not able to set your mind on Me, O Arjuna, then wish to reach Me by the Yoga of constant practice.
478
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.10
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव । मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ १२.१० ॥
यदि तू उपर्युक्त अभ्यासमें भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिये कर्म करनेके ही परायण हो जा । इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मोंको करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धिको ही प्राप्त होगा|
If you are unable to perform the Yoga of constant practice, then be intent on doing your actions for My sake; thus, performing actions for My sake, you will attain perfection.
479
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.11
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः । सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥ १२.११ ॥
यदि मेरी प्राप्तिरूप योगके आश्रित होकर उपर्युक्त साधनको करनेमें भी तू असमर्थ है तो मन बुद्धि – आदिपर विजय प्राप्त करनेवाला होकर सब कर्मोंके फलका त्याग कर|
If you cannot do actions for My sake, then taking refuge in Me, renounce (abandon) all the fruits of action by controlling yourself.
480
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.12
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते । ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥ १२...
मर्मको न जानकर किये हुए अभ्याससे ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञानसे मुझ परमेश्वरके स्वरूपका ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यानसे भी सब कर्मोंके फलका त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि त्यागसे तत्काल ही परम शान्ति होती है|
To gain spiritual knowledge is better than to practise Yoga; Meditation is better than Knowledge, abandoning the fruit of action is better than meditation because peace immediately follows the abandoning of the fruits of action.
481
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.13
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ १२.१३ ॥
जो पुरुष सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित, स्वार्थरहित, सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममतासे रहित, अहंकारसे रहित, सुख-दुःखोंकी प्राप्तिमें सम और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करनेवालेको भी अभय देनेवाला है; तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन – इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें किये हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चयवाला है- – वह मुझमें अर्पण किये हुए मन – बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है
The Lord describes the divine qualities of a devotee: He who hates no one, who is friendly and compassionate to all, who is free of egoism, balanced in pain and pleasure and forgiving. He who is ever content, ever steady in meditation, self-controlled and firmly committed with mind and intellect fixed on Me, that devotee is dear to Me.
482
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.14
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः । मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १२.१४ ॥
जो पुरुष सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित, स्वार्थरहित, सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममतासे रहित, अहंकारसे रहित, सुख-दुःखोंकी प्राप्तिमें सम और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करनेवालेको भी अभय देनेवाला है; तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन – इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें किये हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चयवाला है- – वह मुझमें अर्पण किये हुए मन – बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है|
The Lord describes the divine qualities of a devotee: He who hates no one, who is friendly and compassionate to all, who is free of egoism, balanced in pain and pleasure and forgiving. He who is ever content, ever steady in meditation, self-controlled and firmly committed with mind and intellect fixed on Me, that devotee is dear to Me.
483
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.15
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः । हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ १२.१५ ॥
जिससे कोई भी जीव उद्वेगको प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीवसे उद्वेगको प्राप्त नहीं होता; तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादिसे रहित है – वह भक्त मुझको प्रिय है|
He who does not harm anyone in the world and from whom the world is not agitated, and he who knows no joy, envy, fear and anxiety, that devotee is dear to me.
484
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.16
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १२.१६ ॥
जो पुरुष आकांक्षासे रहित, बाहर भीतरसे – शुद्ध चतुर, पक्षपातसे रहित और दुःखोंसे छूटा २ हुआ है – वह सब आरम्भोंका त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है|
He who is free from desires, who is pure, expert, unconcerned, free from pain, selfless in all of his actions, he who is thus devoted to Me, is dear to Me.
485
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.17
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ १२.१७ ॥
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मोंका त्यागी है – वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है|
He who neither rejoices (obtaining the desirable objects), nor hates (the undesirable objects), nor grieves (losing his beloved objects), nor desires (his beloved objects), free from the notions of good and evil, full of devotion, he is dear to Me.
486
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.18
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥ १२.१८ ॥
जो शत्रु मित्रमें और मान-अपमानमें सम है – तथा सरदी, गरमी और सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंमें सम है और आसक्तिसे रहित है|
He who is the same to enemy and friend and also in honour and dishonour, in cold and heat, in pleasure and pain, and who is free from attachment-
487
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.19
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् । अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥ १२.१९ ॥
जो निन्दा – स्तुतिको समान समझनेवाला, मननशील और जिस किसी प्रकारसे भी शरीरका निर्वाह होनेमें सदा ही सन्तुष्ट है और रहनेके स्थानमें ममता और आसक्तिसे रहित है – वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान् पुरुष मुझको प्रिय है|
He who is neutral in censure and praise, He who is silent, content with anything (in the world), does not claim any residence as his home, he who is steady-minded, full of devotion; that man is dear to Me.
488
Bhakti Yoga
Chapter 12
Verse 12.20
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते । श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥ १२.२० ॥
परन्तु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृतको निष्काम प्रेमभावसे सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं|
They who follow this immortal law as described above, endowed with faith, looking upon Me as their supreme goal and being devoted, are extermely dear to Me.
489
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.1
अर्जुन उवाच । प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव...
श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन ! यह शरीर ‘क्षेत्र १ इस नामसे कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ इस नामसे उनके तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानीजन कहते हैं|
The Blessed Lord said: This body, O Arjuna, is called Kshetra (the field); he who knows it is called Kshetragya (the knower of the field) by the sages (those who have acquired spiritual knowledge).
490
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.2
श्रीभगवानुवाच । इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्व...
धन्य प्रभु ने कहा: इस शरीर, हे कौंटेया को क्षेत्र (क्षेत्र) कहा जाता है और जो इसे जानता है, उसे उन लोगों द्वारा क्षेत्रज्ना (क्षेत्र का ज्ञाता) कहा जाता है जो उन्हें जानते हैं (क्षेत्र का ज्ञानी) अर्थात्, ऋषियों द्वारा।
The Blessed Lord said: This body, O Kaunteya is called KSHETRA (the Field) and he who knows it is called KSHETRAJNA (the Knower-of-the-Field) by those who know them (KSHETRA and KSHETRAJNA) i. e. , by the sages .
491
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.3
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत । क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥...
हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान और क्षेत्र क्षेत्रज्ञको अर्थात् विकारसहित प्रकृतिका और पुरुषका जो तत्त्व जानना है, वह ज्ञान है – ऐसा मेरा मत है|
And you should know Me as the knower of the field in all fields, O Arjuna. The knowledge of both the field and the knower of the field is considered by Me to be real knowledge.
492
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.4
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् । स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥ १३.४ ॥
वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारोंवाला है, और जिस कारणसे जो हुआ है; तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाववाला है – वह सब संक्षेपमें – मुझसे सुन|
What the field is, what it is like, what is its nature, what are its properties and modifications, from what causes, and also, who He (the knower of the field) is, and what His powers are; hear briefly all that from Me.
493
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.5
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् । ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥ १३.५ ॥
ऋषि ने विभिन्न विशिष्ट मंत्रों में कई मायनों में (क्षेत्र और क्षेत्र के ज्ञाता के बारे में) गाया है और तर्क और निर्णय से भरे ब्रह्म के सूचक शब्दों में भी गाया है।
RISHIS have sung (about the Field and the Knower-of-the-Field ) in many ways in various distinctive chants and also in the suggestive words indicative of BRAHMAN full of reason and decision.
494
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.6
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥ १३.६ ॥
महान तत्व, अहंकारवाद, बुद्धि, और यह भी अप्रकट (मूला-प्रकृति), दस इंद्रियों और एक (मन) और पांच वस्तुओं-की-इंद्रियों, ...
The great elements, egoism, intellect, and also the unmanifested (MOOLA-PRAKRITI) , the ten senses and the one (the mind) and the five objects-of-the-senses, . . .
495
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.7
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः । एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥ १३.७ ॥
तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देहका पिण्ड चेतना’ और धृति९— इस प्रकार विकारों के सहित यह क्षेत्र संक्षेपमें कहा गया|
Desire, hatred, pleasure, pain, the body, intelligence, firmness; these along with their modifications have been called the field (Kshetra).
496
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.8
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥ १३.८ ॥
श्रेष्ठताके अभिमानका अभाव, दम्भाचरणका अभाव, किसी भी प्राणीको किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन- -वाणी आदिकी सरलता, श्रद्धा-भक्तिसहित गुरुकी सेवा, बाहर भीतरकी शुद्धि, अन्तःकरणकी स्थिरता – और मन-इन्द्रियोंसहित शरीरका निग्रह|
Humility, modesty, non-injury, forgiveness, uprightness, service of the teacher, purity, steadfastness, self-control.
497
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.9
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥ १३.९ ॥
इस लोक और परलोकके सम्पूर्ण भोगोंमें आसक्तिका अभाव और अहंकारका भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदिमें दुःख और दोषोंका बार बार विचार करना|
Indifference to the sense-objects (such as sound, touch, etc.);absence of egoism (e.g. I am superior to all); reflection on the evil in birth, death, old age, sickness and pain.
498
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.10
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु । नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥ १३.१० ॥
पुत्र, स्त्री, घर और धन आदिमें आसक्तिका अभाव, ममताका न होना तथा प्रिय और अप्रियकी प्राप्तिमें सदा ही चित्तका सम रहना|
Non-attachment, non-identification of self with son, wife, house, and the rest, and constant even-mindedness on the occurrence of the desirable and undesirable.
499
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.11
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥ १३.११ ॥
मुझ परमेश्वरमें अनन्य योगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा एकान्त और शुद्ध देशमें रहनेका स्वभाव और विषयासक्त मनुष्योंके समुदायमें प्रेमका न होना|
Unflinching devotion to Me by the Yoga of non-separation, resort to solitary places, distaste for the society of worldly-minded people.
500
Ksetra-Ksetrajna-Vibhaga Yoga
Chapter 13
Verse 13.12
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ १३.१२ ॥
अध्यात्मज्ञानमें नित्यस्थिति और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्माको ही देखना – यह सब ज्ञान’ है; और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है – ऐसा – कहा है|
Constant awareness of the Self (self-knowledge),perception of the end of true knowledge – that is declared to be the true knowledge, and what is opposed to it is ignorance.